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अतो॑ दे॒वा अ॑वन्तु नो॒ यतो॒ विष्णु॑र्विचक्र॒मे। पृ॒थि॒व्याः स॒प्त धाम॑भिः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ato devā avantu no yato viṣṇur vicakrame | pṛthivyāḥ sapta dhāmabhiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अतः॑। दे॒वाः। अ॒व॒न्तु॒। नः॒। यतः॑। विष्णुः॑। वि॒ऽच॒क्र॒मे। पृ॒थि॒व्याः। स॒प्त। धाम॑ऽभिः॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:22» मन्त्र:16 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:7» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:5» मन्त्र:16


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पृथिवी आदि पदार्थों का रचने और धारण करनेवाला कौन है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - (यतः) जिस सदा वर्त्तमान नित्य कारण से (विष्णुः) चराचर संसार में व्यापक जगदीश्वर (पृथिव्याः) पृथिवी को लेकर (सप्त) सात अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, विराट्, परमाणु और प्रकृति पर्य्यन्त लोकों को (धामभिः) जो सब पदार्थों को धारण करते हैं, उनके साथ (विचक्रमे) रचता है (अतः) उसी से (देवाः) विद्वान् लोग (नः) हम लोगों को (अवन्तु) उक्त लोकों की विद्या को समझते वा प्राप्त कराते हुए हमारी रक्षा करते रहें॥१६॥
भावार्थभाषाः - विद्वानों के उपदेश के विना किसी मनुष्य को यथावत् सृष्टिविद्या का बोध कभी नहीं हो सकता। ईश्वर के उत्पादन करने के विना किसी पदार्थ का साकार होना नहीं बन सकता और इन दोनों कारणों के जाने विना कोई मनुष्य पदार्थों से उपकार लेने को समर्थ नहीं हो सकता। और जो यूरोपदेशवाले विलसन साहिब ने पृथिवी उस खण्ड के अवयव से तथा विष्णु की सहायता से देवता हमारी रक्षा करें यह इस मन्त्र का अर्थ अपनी झूँठी कल्पना से वर्णन किया है, सो समझना चाहिये॥१६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ पृथिव्यादीनां रचको धारकश्च कोऽस्तीत्युपदिश्यते।

अन्वय:

यतोऽयं विष्णुर्जगदीश्वरः पृथिवीमारभ्य प्रकृतिपर्य्यन्तैः सप्तभिर्धामभिः सह वर्त्तमानाँल्लोकान् विचक्रमे रचितवानत एतेभ्यो देवा विद्वांसो नोऽस्मानवन्त्वेतद्विद्यामवगमयन्तु॥१६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अतः) अस्मात् कारणात् (देवाः) विद्वांसोऽग्न्यादयो वा (अवन्तु) अवगमयन्तु प्रापयन्ति वा पक्षे लडर्थे लोट्। (नः) अस्मान् (यतः) यस्मादनादिकारणात् (विष्णुः) वेवेष्टि व्याप्नोति चराचरं जगत् स परमेश्वरः। विषेः किच्च। (उणा०३.३८) अनेन ‘विष्लृ’धातोर्नुः प्रत्ययः किच्च। (विचक्रमे) विविधतया रचितवान् (पृथिव्याः) पृथिवीमारभ्य। पञ्चमीविधाने ल्यब्लोपे कर्म्मण्युपसंख्यानम्। (अष्टा०२.३.२८) अनेन पञ्चमी। (सप्त) पृथिवीजलाग्निवायुविराट्परमाणुप्रकृत्याख्यैः सप्तभिः पदार्थैः। अत्र सुपां सुलुग्० इति विभक्तेर्लुक्। (धामभिः) दधति सर्वाणि वस्तूनि येषु तैः सह॥१६॥
भावार्थभाषाः - नैव विदुषामुपदेशेन विना कस्यचिन्मनुष्यस्य यथावत्सृष्टिविद्या सम्भवति नैवेश्वरोत्पादनेन विना कस्यचिद् द्रव्यस्य स्वतो महत्त्वपरिमाणेन मूर्त्तिमत्त्वं जायते नैवैताभ्यां विना मनुष्या उपकारान् ग्रहीतुं शक्नुवन्तीति बोध्यम्। विलसनाख्येनास्य मन्त्रस्य ‘पृथिव्यास्तस्मात्खण्डादवयवाद्विष्णोः सहायेन देवा अस्मान् रक्षन्तु’ इति मिथ्यात्वेनार्थो वर्णित इति विज्ञयेम्॥१६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्वानांच्या उपदेशाशिवाय कोणत्याही माणसाला यथायोग्य सृष्टिविद्येचा बोध कधीही होत नाही. ईश्वराने उत्पन्न केल्याशिवाय कोणताही पदार्थ साकार होऊ शकत नाही. ही दोन्ही कारणे जाणल्याशिवाय कोणताही माणूस पदार्थांचा लाभ घेण्यास समर्थ होऊ शकत नाही. ॥ १६ ॥
टिप्पणी: युरोपियन विल्सनसाहेबांनी ‘पृथ्वी त्या खंडाच्या अवयवाने व विष्णूच्या साह्याने देवतेने आमचे रक्षण करावे’ हा या मंत्राचा अर्थ विपरीत केलेला आहे, हे ओळखावे. ॥ १६ ॥